अंतहीन
अंतहीन चाहतों के समुंदर में, ये ज़िंदगी बैठी है
ना खुलके हँसती है,
ना जीती है
सबकुछ के अंदर
खुद को अधूरा
पाती है
अनगिनत चाहतों के दल-दल में
फँसी हुई ये
ज़िंदगी,
कमियों और
खामियों की लंबी
सूची बाँधने चली
है (1)
“ये ऐसा होना
था, नहीं हुआ”
“मुझे वो नहीं
मिला” और “मिला
भी तो क्या
मिला”
“और उसने ऐसा
बोल्दिया" तो फिर "और किसीने कुछ
ना बोला”
ऐसे ऐसे ना
जाने कितने फरियादों
को लेके बैठी
है (2)
फिर पता चला,
समय तो बीतता
जा रहा
और ये सब
फरियादों और चाहतों
के बीच में
सारे हसीन पलों
को ज़िंदगी खोने
चली है
और रिस्ते टूटने लगे
हैं
कई ज़िंदगी तो पता
नहीं कहीं अंजाने
रास्ते पर सबसे
दूर कहीं जा
बैठी है (3)
ये अंतहीन चाहतों की समुंदर से निकल
जा
ज़िंदगी को समझने
की बस सही
चस्मे को चुन
ले
वोही पल जो
चाहतों की ढेर
में खड़े हैं,
उनसे सुनहेरी पलों की
माला पिरो ले.
(4)
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