अंतहीन
अंतहीन चाहतों के समुंदर में , ये ज़िंदगी बैठी है ना खुलके हँसती है , ना जीती है सबकुछ के अंदर खुद को अधूरा पाती है अनगिनत चाहतों के दल - दल में फँसी हुई ये ज़िंदगी , कमियों और खामियों की लंबी सूची बाँधने चली है (1) “ ये ऐसा होना था , नहीं हुआ ” “ मुझे वो नहीं मिला ” और “ मिला भी तो क्या मिला ” “ और उसने ऐसा बोल्दिया " तो फिर " और किसीने कुछ ना बोला ” ऐसे ऐसे ना जाने कितने फरियादों को लेके बैठी है ...